बातचीत


 

५ अप्रैल, १९६७

 

 (माताजी एक टिप्पणी लिखती हैं) यह एक प्रश्र का उत्तर हैं । क्या तुम्हें मालूम है  कि मैंने विधालय के अध्यापकों से क्या कहा हैं? मुझसे एक और प्रश्र किया गया हैं । यह हैं मेरे उत्तर का आरंभ :

 

   '' 'सामान्य जीवन' और ' आध्यात्मिक जीवन' के बीच विभाजन एक पुरानी रूढ़ि है !"

 

   तुमने यह प्रश्र पढ़ा हैं ? मुझे फिर से पढ़कर सुनाओ ।

 

   ''हमने भविष्य के बारे में बातचीत की ! मुझे  ऐसा लगा कि सभी अध्यापक कुछ-न-कुछ करने के लिये उत्सुक ताकि बच्चों को इस बात का भान सके कि दे यहां क्यों  उस समय मैंने कह ? कि मेरी समझ में बच्चों के सक् प्रायः आध्यात्मिक चीजों की बात करने से उलटा परिणाम आत ?, और ये शब्द अपना मूल्य खो बैठते !...

 

 '' आध्यात्मिक चीजें' '... आध्यात्मिक चीजों से उसका क्या मतलब है?

 

   रिष्ट है कि अगर अध्यापक उसे एक कहानी के तौर पर सुनाएं..

 

 आध्यात्मिक चीजें... उन्हें इतिहास पढ़ाया जाता है  या आध्यात्मिक चीजें, उन्हें विज्ञान पढ़ाया जाता है या आध्यात्मिक चीजें । यहीं तो मूर्खता हैं । इतिहास में ' आत्मा' मौजूद है विज्ञान में ' आत्मा' मौजूद हैं-'सत्य' हर जगह है । और जरूरत इस बात की है कि उसे गलत तरीके से नहीं, बल्कि सत्य-विधि सें पढ़ाया जाये । यह बात उनके दिमाग में नहीं घुसती ।

 

वह आगे लिखता है : ''मैंने सुज्ञाभाव दिया है कि ज्यादा अच्छा यह होगा कि मिलकर माताजी की आवाज' को सुना जाये क्योंकि हम क्ले सब कुछ न समझ पाये परंतु आपकी आवाज अपना आंतरिक कार्य दूत कर लेगी जिसका मूल्यांकन हम नहीं कर सकते इस बारे में मैं यह जानना चाहूंगा कि बच्चे को आपके संपर्क में लाने का सबसे अच्छा तरीका क्या हे ऐसा तगाई कि सभी सुझाव जिनमें मेरे सुझाव की मी गिनती है मनमाने हैं जिनका वास्तविक मूर्धन्य कुछ नहीं?

 

      माताजी की कक्षाओं के ध्वन्याकित फ़ीते ।

 


''माताजी क्या यह ज्यादा अच्छा न होगा कि अध्यापक केवल उन्हीं विषयों पर ध्यान दें जो वै पढ़ा रहे हैं क्योंकि आध्यात्मिक जीवन की देख-रेख करने क्वे लिये तो माप हैं ही? ''

 

 मैं उसे ए यह उत्तर दूंगी : कोई '' आध्यात्मिक जीवन' ' हैं हीं नहीं! यह वही पुराना विचार हैं, वही पुराना विचार-एक संत हैं, संन्यासी हैं,... जो आध्यात्मिक' जीवन का प्रतिनिधित्व करता हैं और बाकी सब सामान्य जीवन का- और यह सत्य नहीं है, यह सत्य नहीं हैं, यह बिलकुल सत्य नहीं हैं ।

 

     अगर उन्हें अब भी दो चीजों के बीच विरोध की जरूरत है- क्योंकि बेचारा मन के विरोध के बिना काम नहीं कर सकता- अगर रूहें विरोध की जरूरत हैं, तो वे 'सत्य' और 'मिथ्यात्व' के बीच के विरोध को लें सकते हैं, यह जस ज्यादा अच्छा है; मै यह नहीं कहती कि यह पूर्ण है, लेकिन यह जस ज्यादा अच्छा है । तो, सभी चीजों में, सब जगह 'सत्य' और 'मिथ्यात्व' का मिश्रण हैं : तथाकथित '' आध्यात्मिक जीवन' ' मैं, संन्यासियों में, सवारियों में, उन लोगों में जो समझते हैं कि धरती पर दिव्य जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन सबमें- वहां भी ' सत्य ' और 'मिथ्यात्व ' 'का मिश्रण है ।

 

किसी प्रकार का विभाजन न करना ज्यादा अच्छा होगा ।

 

(मैंने)

 

    बच्चों के दिल में, ठीक इसी कारण कि वे बच्चे हैं, भविष्य को जितने का संकल्प बैठाना, हमेशा आगे देखने और जितनी तेजी से हो सके उतनी तेजी सें... भावी की ओर आगे बढ़ने का संकल्प बैठाना बहुत अच्छा है  । लेकिन वे अपने साथ भूतकाल के बोझ का, भूत के कष्टकर बड़े पत्थर का पूरा, असह्य भार न घसीट । जब हम चेतना और ज्ञान में बहुत ऊंचे हों, तभी पीछे देखना यह जानने के लिये हितकर हो सकता हैं कि है कौन-से बिंदु हैं जहां से यह भविष्य अपने-आपको प्रकट करना शुरू करता है । जब हम सारे चित्र को देखें, जब हमारे अंदर सार्वभौम दृष्टि हो, तब यह जानना रुचिकर होता हैं कि भविष्य में जो उपलब्धि होगी वह पहले से हीं उद्घोषित की जा चुकी है, जैसे, श्रीअरविन्द ने कहा कि दिव्य जीवन धरती पर अभिव्यक्त होगा, क्योंकि वह पहले हीं 'जढ़तत्त्व' की गहराइयों में अंतर्निहित हैं; इस दृष्टि से पीछे देखना या नीचे देखना मजेदार हो सकता हैं- यह जानने के लिये नहीं कि क्या द्रुआ था, या यह जानने के लिये कि मनुष्य क्या जानते थे : यह बिलकुल बेकार है । बच्चों से कहना चाहिये : अद्भुत चीजें अभिव्यक्त होने को हैं, उन्हें ग्रहण करने के लिये अपने-आपको तैयार करो । तब अगर वे कुछ ज्यादा ठोस, कुछ ज्यादा सुगम बात जानना चाहें तो तुम कह सकते हों : श्रीअरविन्द इन चीजों की घोषणा करने

 

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आये थे; तुम जब उनकी कृतियों पढ़ा सकोगे तो इस बात को समझो । तो इससे रस जागता हैं, जानने की इच्छा जागती है  ।

 

मैं बहुत स्पष्ट रूप से देख सकता हूं कि वह किस कठिनहि की ओर इशारा कर रहा है : अधिकतर लोग- अपने सारे लेखों या भाषणों मे- अपने निजी अनुभव के सत्य बिना आडम्बरपूर्ण भाषा का उपयोग करते हैं जिसका कोई असर नहीं होत्र बल्कि नकारात्मक असर होता है वह इसी ओर सकेत कर रहा है !

 

 हां, इसीलिये उन्हें वह करना चाहिये जो मैंने बताया है ।

 

   आह ! लेकिन अभी बहुत समय नहीं बीता जब कि अधिकतर अध्यापक कहा करते थे : '' ओह! लेकिन हमें ऐसा करना चाहिये क्योंकि -सब जगह ऐसा हीं किया जाता हैं । '' (मुस्कराते हुए) वे कुछ दूर तो आ हीं हाये हैं । लेकिन अभी बहुत दूर जाना है !

 

   लेकिन सबसे बढ़कर, सबसे जरूरी यह है कि इन विभाजनों को हटाया जाये । और उन में से हर एक के मन मे, सभी के मन में यह हैं : आध्यात्मिक जीवन और साधारण जीवन बिताने, आध्यात्मिक चेतना और सामान्य चेतना मे विभाजन-लेकिन चेतना एक हीं है ।

 

   अधिकतर लोगों में तनि -चौथाई चेतना सोया हुई और विकृत होती है, बहुतों में वह और भी अधिक, पूर्णत: विकृत होती है । लेकिन जिस बात की जरूरत हैं वह बस, यह नहीं है कि एक चेतना में से दूसरी मे छलांग लगायी जाये, जरूरत इस बात की है कि अपनी चेतना को खोला जाये (अपर की ओर संकेत) और उसे 'सत्य' के स्पंदनों से भरा जाये, उसका उस चीज के साथ सामंजस्य किया जाये जिसे यहां होना चाहिये-वहां तो है समस्त शाश्वत काल से है हीं- लेकिन यहां, यहां होना चाहिये : जो धरती का ''भावी कल' ' हैं । अगर तुम अपने ऊपर वह सारा बोझ लाद को जिसे तुम्हें अपने पीछे खींचना हैं, अगर तुम उन सब चीजों को घसीटते चलो जिन्हें छोड़ देना चाहिये, तो तुम बहुत तेजी से आगे न बढ़ सकोगे ।

 

   ध्यान रहे, धरती के भूतकाल की बातों को जानना बहुत मजेदार और बहुत उपयोगी हो सकता है, लेकिन वह ऐसी चीज न हो जो तुम्हें भूत के साथ बांध दे या कस दे । अगर उसका उपयोग कूदने के तख़्ते की तरह से किया जाये तो ठीक हैं, परंतु वास्तव मे, यह है बहुत गौण ।

 

(मौन)

 

    बच्चों को पढ़ाने के नये तरीके को रूप देना या विस्तार देना बहुत मजेदार होगा ।

 

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उन्हें बहुत छोटी उम्र में लें लो । जब वे बहुत छोटे हों तो ज्यादा आसानी रहती हैं । हमें लोगों की जरूरत हैं- ओह! हमें विलक्षण अध्यापकों की जरूरत होगी-जिन्हें, पहले जो कुछ ज्ञात है उसका काफी अच्छा प्रलेखन प्राप्त हो ताकि उनसे जो कुछ पूछा- जाये उसका वे उत्तर दे सकें, और साथ-हीं-साथ, अगर अनुभव नहीं, तो कम-से- कम?  सच्ची अंतर्भासात्मक बौद्धिक वृत्ति का ज्ञान हो- अनुभव ज्यादा अच्छा हैं, और-स्वभावत: उसकी क्षमता हो तो और भी अच्छा- कम-से-कम यह ज्ञान तो हों ही कि जानने का सच्चा तरीका है मानसिक नीरवता, एकाग्र नीरवता जो सत्यतर 'चेतना' की ओर मूजी हो, और उससे आनेवाली चीज को ग्रहण करने की क्षमता हो । इससे अच्छा तो यह होगा कि इसे ग्रहण करने की क्षमता होरा कम-से-कम, यह समझा दिया जाये कि यहीं सच्ची चीज है-यह एक प्रकार का प्रदर्शन हो- और यह बताया जाये कि यह केवल इस दिष्टि से काम नहीं करता कि क्या सीखा जाये, ज्ञान के समस्त क्षेत्र की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि जो कुछ करना हैं उस सबके क्षेत्र से मी : यह निर्देश पाने की क्षमता हों कि उसे कैसे किया जाये; और जैसे-जैसे तुम बढ़ते जाओगे यह इस स्पष्ट बोध में बदल जायेगा कि क्या करना चाहिये, और इस बात का यथार्थ निर्देश होगा कि कब करना चाहिये । कम-से-कम बच्चों में, जैसे हीं सोचने की क्षमता आये-यह सात वर्ष की अवस्था में आरंभ होती है, पर चौदह-पंद्रह तक बहुत स्पष्ट हों जाती है - उन्हें यह बतला देना चाहिये कि वस्तुओं के गहरे सत्य के साथ संबंध रखने का यहीं एक तरीका है, और यह कि बाकी सब कम या अधिक तौर पर चीज का एक भद्दा मानसिक अनुमान है जिसे प्रत्यक्ष जाना जा सकता हे, बच्चों को सात वर्ष की अवस्था में जरा-सा निर्देशन दें देना चाहिये और चौदह वर्ष की अवस्था मे यह करने का पूरा तरीका समझा देना चाहिये ।

 

निष्कर्ष यह है कि स्वयं अध्यापकों में अनुभूति और साधना का कम-से-कम सच्चा आरंभ होना चाहिये और यह कि यह किताबें इकट्ठी करने और उन्हींकी दोहरा देने का प्रश्र नहीं है  । इस तरह तुम अध्यापक नहीं हों सकते; अगर बाहरी दुनिया ऐसा होना चाहती है  तो उसे होने दो । हम ''प्रोपेगडा' ' करनेवाले नहीं हैं, हम केवल यह दिखा देना चाहते हैं कि क्या किया जा सकता है और यह प्रमाणित करने की कोशिश करना चाहते हैं कि यह करना ही पड़ेगा ।

 

   जब तुम बच्चों को बहुत छोटी अवस्था में लेते हो तो यह अद्भुत बात होती है । करने के लिये बहुत कम होता हैं : केवल होना काफी होता है ।

 

    कभी स्व न करो ।

    कभी आपे सें बाहर न होओ ।

    हमेशा समझा ।

 

    और करने लायक चीज बस, यहीं है-स्पष्ट रूप से यह जानो और देखो कि यह गति क्यों हुई है , यह आवेग क्यों आया है , बच्चे का आंतरिक गठन क्या है, कौन-सी

 

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चीज है  जिसे मजबूत बनाना और आगे लाना चाहिये; उन्हें छोड़ दो, खिलन के लिये स्वतंत्र छोड़ दो; उन्हें बहुत-सी चीजें देखने का, बहुत-सी चीजें छूने का, यथासंभव अधिक-से-अधिक चीजें करने का अवसर दो । यह बहुत मजेदार हैं । और सबसे बढ़कर यह कि जिस चीज के बारे में तुम समझते हो कि तुम जानते हो, उसे उन पर लादने की कोशिश न करो ।

 

    उन्हें कभी न डांटो । हमेशा समह्म और अगर बालक तैयार हैं तो समझाओ; अगर वह समझने के लिये तैयार न हो- अगर स्वयं तुम तैयार हो-तो मिथ्या स्पंदनों के स्थान पर सत्य स्पंदन रखो । लेकिन यह... अध्यापकों से ऐसी पूर्णता की मांग करना है जो किसी विरले में हीं होती है ।

 

   लेकिन अध्यापकों के लिये एक कार्यक्रम बनाना बहुत मजेदार होगा, एकदम तली से अध्ययन का सच्चा कार्यक्रम, - जो बहुत लचीला हो और जो बहुत गहरे संस्कार देनेवाला हो । बहुत छोटी अवस्था में यदि उन्हें सत्य की कुछ बूंदें दी जायें तो सत्ता के विकास के साथ-ही-साथ वे बिलकुल स्वाभाविक रूप से मिलेंगे । यह सुन्दर कार्य होगा ।

 

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